Monday, 2 July 2018

*"मकान सारे कच्चे थे" हरिवंश राय बच्चन* گهر سڀ ڪچا هئا  ----- هريونش راءِ بچن

*"मकान सारे कच्चे थे" हरिवंश राय बच्चन*
گهر سڀ ڪچا هئا  ----- هريونش راءِ بچن

मकान चाहे कच्चे थे
लेकिन रिश्ते सारे सच्चे थे…
شايد گهر سڀ ڪچا هئا
پر رشتا سڀ سچا هئا
चारपाई पर बैठते थे
पास पास रहते थे…
کٽ تي وِهندا هُئاسين
ويجهو ويجهو رهندا هئاسين
सोफे और डबल बेड आ गए
दूरियां हमारी बढा गए….
جڏھن سوفا ۽ ڊبل بيڊ اچي ويا
وڇوٽيون اسان جون وڌنڌيون ويون
छतों पर अब न सोते हैं
कहानी किस्से अब न होते हैं..
اڄ ڇتين تي نٿا سمهون
ڪهاڻيون ڪِسا بہ نٿا چئون
आंगन में वृक्ष थे
सांझा करते सुख दुख थे…
اڱر ٻاهر وڻ هوندا هئا
سک دک ونڊيا ويندا هئا
दरवाजा खुला रहता था
राही भी आ बैठता था…
دروازا کُلا رهندا هئا
ايندڙ ويندڙ بہ اندر اچي وهندا هئا
कौवे भी कांवते थे
मेहमान आते जाते थे…
ڪانوَ ڪان ڪان ڪندا هئا
مهمان ايندا ويندا هئا …
इक साइकिल ही पास थी
फिर भी मेल जोल की आस थी …
سائيڪل هڪ ئي هوندي هئي
پوءِ بہ ميل ميلاپ جي آس رهندي هئي …
रिश्ते निभाते थे
रूठते मनाते थे…
رشتا نباهيندا هئاسين
رٺل کي منائيندا هئاسين …
पैसा चाहे कम था
माथे पे ना गम था…
پوءِ ناڻو بلاشڪ گهٽ ھو
پر مٿي تي ڪو گم نہ هو
मकान चाहे कच्चे थे
रिश्ते सारे सच्चे थे…
گهر بلاشڪ ڪچا هئا
پر رشتا سڀ سچا هئا …
अब शायद कुछ पा लिया है
पर लगता है कि बहुत कुछ गंवा दिया है...
شايد هاڻ گهڻو ڪجهہ ڪمايو آ
پر لڳي ٿو گهڻو ڪجهہ وڃايو آ …
जीवन की भाग-दौड़ में –
क्यूँ वक़्त के साथ रंगत खो जाती है?
हँसती-खेलती ज़िन्दगी भी आम हो जाती है।
جيون جي ڍُڪ ڊوڙ ۾ -
ڇو وقت ساڻ رنگيني گم ٿيندي آهي؟
کلندڙ ٽپندڙ زندگي عام ٿي ويندي آهي ؟
एक सवेरा था जब हँस कर उठते थे हम
और आज कई बार
बिना मुस्कुराये ही शाम हो जाती है!!
هڪ صبح ھو جڏھن کلندا اُٿندا هئاسين
۽ اڄ ڪيتريون شام ويلون
بنا مسڪرائيندي گذري وينديون آهن !!
कितने दूर निकल गए,
रिश्तो को निभाते निभाते...
ڪيترو تہ پري لنگهي آيا آهيون
رشتن کي نباهيندي نباهيندي …
खुद को खो दिया हमने,
अपनों को पाते पाते...
پنهنجي ”پاڻُ “ کي وڃائي ڇڏيو آ
پنهنجن کي پائيندي پائيندي …
मकान चाहे कच्चे थे...
रिश्ते सारे सच्चे थे…
گهر بلاشڪ ڪچا هئا …
پر رشتا سڀ سچا هئا …

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